शीतल पावन गंगा ने ये कैसा उत्पात किया
अपने ही भक्तो पर असहनीय आघात किया
सब की जुबान पर बस यही शब्द हैं गूंज रहे
कितनी हानि हुई कितने लोग गंगा में बहे
दर्द हुआ दुःख हुआ और होना भी लाजमी ही था
अपने खोये सपने खोये वो भयावह मंजर था
कोष रहे सब वर्षा को कभी गंगा को आखिर क्यूँ ?
जब ये प्रलय तो खुद ही पुकारी है
ये कहर नही बस चेतना है जो अब सबको समझानी है
जो दर्द मिला है धरती को ये तो उसका भुक्तान है
वृक्ष कटे और उनकी जगह इमारतों का आवाहन हुआ
प्रकोप है ये की गंगा तट अब कैसे शमशान हुआ
जो हुआ वो तो अब बदला जाना मुमकिन ना होगा
उम्मीद है हम ये कह सकें की फिर ऐसा कभी ना होगा
दोष हमारा अब खुद हर्जाना भरना है
कसम खाओ अब वृक्षारोपण करना है
संदीप सिंह रावत (पागल)
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